ऊँचे सपने आँखों में लिए चहकती-सी चिड़िया थी वो ...
पापा की परी बन घर आँगन महकाती थी वो ...
हजारों सपने आँखों में लिए, हर रोज उड़ान भरती थी वो ...
आज गहन सन्नाटों को फाड़ देती है उस अधूरे लक्ष्य की ललकार वो ...
दिन-रात जो सपने में रहती थी, आज अथाह दर्द में जीती है वो...
उस दरिंदे की हैवानियत ने छीन ली उसकी सूरत जो ....
पिछले छण की मुस्कुराहट को जिन्दगी भर को ढक दिया वो...
अम्ल की कुछ ही बूंदों ने पिघला दिए सपने व सूरत जो .....
आज गहन सन्नाटों को फाड़ देती है उस अधूरे लक्ष्य की ललकार वो ...
ना टूटती इस कदर सड़क पर इंसानियत कहीं मिल जाती तो ...
पूरे वदन को छल रही थी दरिंदगी की अहसानियत जो ...
टूट रही थी जिंदगियाँ व बिखरते लक्ष्य की जंजीरे जहाँ ...
मौन खड़े देख रहा था जमाने का काफिला वहाँ .....
और चीरते हुई निकल रही थी उस अधूरे लक्ष्य की ललकार वहाँ...
जिन्दगी भर उसके कर्मों को पहचान बनाकर घूमती है अब ..
हर सर्जरी झट से थाम देती है अधूरे सपनों की ललकार तब …
जमाने के शोर से भी ऊँची थी लक्ष्य की उड़ाने उसकी ....
जमाने का साथ पा कर भी नही बदल सकती वो अब कहानी अपनी ...
असीम शोर में भी उसे सुनाई देती है उसे , उस अधूरे लक्ष्य की ललकार अपनी ....
@अpoorva
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