Wednesday, 20 December 2017

विपत्तियाँ ललकारती तू उनका अब संहार कर







ये पथ जो तूने चुन लिया, ना उससे अब इनकार कर |

विपत्तियाँ ललकारती, तू उनका अब संहार कर ||

भले अँधेरा ढंक रहा, तू खुद रवि सा जगमगा|
भले अकेला चल रहा, तू खुद को शूरवीर बना ||

बहुत पराश्रित बन लिया, तू स्वयं को अब आधार कर |
चुनौतियों से नजर मिला, और युद्ध का आगाज़ कर ||

तू हार से ना डगमगा, हौसले से सर उठा |
अनिश्चितता को भूल जा, तू कर्म को प्रधान बना ||

ना फल है तुझको मिल रहा, तो खुद को फिर से बीज कर|
जो भय है तुझको छल रहा, अब उसको दर किनार कर ||

जिद जोश जुनून जगा, तू खुद को अब पहचान जरा |
स्वयं मार्ग प्रशस्त  कर , तू खुद को यूँ मिशाल बना ||

विपत्ति का तू सर झुका, आराम को विराम कर |
सतत कदम बढाये जा, तू जीत का अब शंखनाद कर ||

~अपूर्वा गुप्ता


Monday, 10 July 2017

हैवानियत का एक नज़ारा ..



ऊँचे सपने आँखों में लिए चहकती-सी चिड़िया थी वो ...
पापा की परी बन घर आँगन महकाती थी वो ...
हजारों सपने आँखों में लिए, हर रोज उड़ान भरती थी वो ...
आज गहन सन्नाटों को फाड़ देती है उस अधूरे लक्ष्य की ललकार वो ...

दिन-रात जो सपने में रहती थी, आज अथाह दर्द में जीती है वो...
उस दरिंदे की हैवानियत ने छीन ली उसकी सूरत जो ....
पिछले छण की मुस्कुराहट को जिन्दगी भर को ढक दिया वो...
अम्ल की कुछ ही बूंदों ने पिघला दिए सपने व सूरत जो .....
आज गहन सन्नाटों को फाड़ देती है उस अधूरे लक्ष्य की ललकार वो ...

ना टूटती इस कदर सड़क पर इंसानियत कहीं मिल जाती तो ...
पूरे वदन को छल रही थी दरिंदगी की अहसानियत जो ...
टूट रही थी जिंदगियाँ व बिखरते लक्ष्य की जंजीरे जहाँ ...
मौन खड़े देख रहा था जमाने का काफिला वहाँ .....
और चीरते हुई निकल रही थी उस अधूरे लक्ष्य की ललकार वहाँ...

जिन्दगी भर उसके कर्मों को पहचान बनाकर घूमती है अब ..
हर सर्जरी झट से थाम देती है अधूरे सपनों की ललकार तब
जमाने के शोर से भी ऊँची थी लक्ष्य की उड़ाने उसकी ....
जमाने का साथ पा कर भी नही बदल सकती वो अब कहानी अपनी ...
असीम शोर में भी उसे सुनाई देती है उसे , उस अधूरे लक्ष्य की ललकार अपनी ....

@अpoorva

Thursday, 1 June 2017

हमारे देश का किसान

तपती धूप में भूखों के लिए , बीज जो बोता है..
दुख ही दुःख हैं घर में उसके सुख वो तुमको देता है..
देश का अन्नदाता कहते .... देश उसका कर्जदार है....
फिर क्यूँ ये धरती देश की उसके खून से शर्मसार है......

छोटा सा परिवार उसका मवेशियों का भी निवास है....
कच्चा सा मकान खड़ा , धोती तन की शान है....
छाले पड़े पैरों में , देश की वह जान है .......
फिर क्यूँ ये धरती देश की , उसके लिए शमशान है ......

धरती का सच्चा लाल , कितने दुख सह जाता है .....
जीवन देता वह सबको , घर में अन्न भी ना पाता है ....
सेठ साहूकारों से जिसकी बड़ी उधारी है .....
फिर क्यूँ ये धरती देश की उसके खून से हारी है.....

अन्न उगाकर भी बच्चों को अन्न के लिए तरसाता है....
वसन नही दे पाता अधनंगे बच्चों को रोज सुलाता है ......
मिटटी से सोना उपजाता देश को धन दिलाता है......
फिर क्यूँ ये देश उसके ही खून में रंग जाता है.......

@अpoorva 

Tuesday, 30 May 2017

पलकें उठाने दो ना मुझे ..

तेरा ही तो ख्वाव हूँ , अपनी वाहों में आने दो ना मुझे ....
तेरा ही तो अरमान हूँ , अपने आंगन में गुनगुनाने दो ना मुझे ..

बिना देखे मेरा नूर , कैसे निर्णय बना लिया ..
काबीलियत देखे बिना ही क्यूँ बेटी समझ नकार दिया .....
किसी आफताब का नूर हूँ मैं जहाँ में आने दो ना मुझे .....
बेटे से ज्यादा काबिल हूँ यह हुनर दिखाने दो ना मुझे ....

काफिला ज़माने का बेटे के फितूर में चल रहा .....
बेटी को कोख में फना कर खुद को भगवान समझ रहा .....
 
इस जहाँ में लड़की का वजूद बनाने दो ना मुझे .....
जन्म देकर काफिले का रुख मोडने दो ना मुझे ....

शक्ती हूँ में माँ दूर्गा सी , भूखों भी ना रोंउंगी ....
तेरे हर दुख में हर उम्र में , साथ हमेशा होऊँगी ....
तस्वीर हूँ तेरे बदलते नसीब की अस्तित्व लेने दो ना मुझे ..
 
तेरे सर का ताज बनूँगी अपनी कोख में पनपने दो ना मुझे .......

माँ लक्ष्मी का रूप हूँ मैं बरकत लेकर आऊँगी ...
 
भैया की किताबों से पढकर खेतों में हाथ बटाऊँगी .....
इनायत हूँ खुदा की दो घर आंगन महकाने दो ना मुझे ....
इस कायनात को निहारना चाहती हूँ पलके तो उठाने दो ना मुझे


-@अpoorva