Saturday, 28 December 2019

इक मुसाफिर

ढलते हुए सूरज से कुछ
भरकर आँखों में आशायें
होता सदृढ़ हर भोर किरण संग
लिखने को अपनी गाथाएँ

उठा शस्त्र लेकर अरमान
चल पड़ा पथिक अपनी ही शान
मिलता न पथ पर कोई निशाँ
सह लेता वो हर एक अपमान

कहते निशाचर उसे सभी
ख़्वावों में था बस एक मुकाम
न सुध थी दिन की रात की
बढ़ते जाना उसका सिद्धान्त

चलता ख़ुद में तूफान लिए
जीतूंगा मैं, ये ठान लिए
हंसते मुसाफिर गिर गिर कर
वो सह लेता मुस्कान लिए

मिलता कभी जो फल उसे
ले लेते कर निर्बल उसे
कह देते उसे तू लायक नही
फिर आना, अभी वक़्त नही

जला मिशाल फिर अंगारों से
डरता नही वो धिक्कारों से
ख़्वावों को सरताज लिए
हारा नही ये जान प्रिये

फिर लौटूंगा सैलाब लेकर
अधूरे ख्वाब को आवाज देकर
विपदाओं से लड़ झगड़कर
उम्मीदों से भरा जोश लेकर

इस चकाचौन्ध दुनिया में
इक मुसाफिर को पहचान दिलाने।

@अpoorva

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